Saturday, February 18, 2012

खुद को किसी भी जगह स्थाई न कर पाना, अपनी सबसे बड़ी कमी पता हूँ. इससे भी बड़ी कमी है इस कमी को जान कर भी दूर करने में अक्षम हूँ.
ये तो रही मेरी कमी खुद को गीली मिट्टी मानता हूँ अब तो ये कुम्हार के ऊपर निर्भर करता है की वह इस गीली मिट्टी को पानी ठंडा करने के लिए सुराही बनाना चाहता है या कुल्हड़ जिसमे एक बार चाय या पानी पी के फेंक दिया करते  हैं.
मेरा मन तो कह रहा है काश सुराही बन जाता तो कितना अच्छा था प्यासों को पानी पिलाने के काम आता पर मेरी बुद्धि भी ठहरी फक्कड़ी वो भी करने चल पड़ी निर्णय और उसने मुंह को दिया सन्देश बोल दो- 

                 न बनुंगा सुराही न ही बनुंगा कुल्हड़
                जाऊं भले पड़ा-पड़ा  यहीं सूख
                चाहे प्रकृति ही क्यों न जाये रूठ
                पर करता रहूँगा उस वक़्त तक का इंतजार
                जब होगी कभी बरसात आएगा बीज कोई पास
                समेट लूँगा उसे अपने मुट्ठी में बना दूंगा उसे  एक वृक्ष
                जिसके छाँव तले बैठेंगे महात्मा साधू, संत,और राही

               फलेंगे जिसपे सैकड़ों फल मीठे
               खा के जिसे हो जायेंगे तृप्त परिंदे भी
               शायद तब होगी स्थिर यह बुद्धि
               और हो जाएगी जिन्दा यह मृत शरीर.